Friday, 19 August 2016

यौन संचारित रोग

जो रोग मैथुन द्वारासंचारित होता है उसे यौन संचारित रोग कहते है ! जैसे - गोनोरिया , सिफलिस , हर्पिस , क्लेमिदियता , लैंगिक मस्से एवं विशेष खतरनाक एच ० आई ० वी० (HIV Human Immunodeficiency Virus ) तथा एड्स (AIDS Acquired Immunodeficiency Syndrome ) आदि !
(1) यीस्ट जनित रोग -कैंडिडा एल्बिकान्स (Candida Albicans) नमक यीस्ट के संक्रमण से होता है ! इस रोग में पुरुषके शिश्न के शिखर भाग में सिथतमुंड (Glans) में एवं स्त्रियों के बाहा जननांगो मेंखुजली होती है !
(2) प्रोतोजोआट्राईकोमोनास भैजिनैलिस (Trichomonas Vaginalis) द्वारा स्त्रियों की मूत्र - जनन नालिकाओ मेंसंक्रमण के कारण योनि के स्त्राव होता है !
(३) बैक्टीरियानिसेरिया गोनोरी (Nisseria Gonorroeae) के कारण पुरूष की मूत्रनली तथा स्त्रियों में गर्भाशय की ग्रीवासंक्रमित होती है ! इस लैंगिक रोग को गोनोरिया (Gonorrhoea) कहते है !
(4) बैक्टीरिया ट्रेपोनेमा पैलिडम (TreponemaPollidum ) के कारण बाहा जननांगोकी त्वचा मेंफुंसी निकल जाती है ! इस प्रकार के यौन रोग को सिफलिस (Siphilis) कहते है !
(5) बैक्टीरियाक्लैमाइडिया ट्रेकोमेटिस (Chalmydia Trachomatis) क्ले कारण मूत्रमार्ग , सर्विक्स तथा फेलोपियन नलिका संक्रमित होजाते है एवं इन सब अंगो में तेज सुजन हो जाति है ! इन रोगों को क्रमशः उरेथाईटिस (Urethritis)सर्विसाईंटिस (Cervicitis) तथा सल्पिनजाईटिस (Salpingitis) कहते है !
हर्पिस सिम्प्लेस वायरस II(Herpes Simplex Virus II) द्वाराबाहा जननांगो में अत्यधिक जलान्युक्त छाले (Blisters) निकल जाते है ! इस वायरस संक्रमण रोग को हर्पिस कहते है !
ह्यूमन पैपिलोम वायरस(Human Papillome Virus) केसंक्रमण से योनि , बल्वा, शिश्न या गुदाद्वारमें मस्सा (Warts) निकलजाते है !
(8) एक गंभी संक्रामक रोगजिसे एड्स , (Acquired Immunodeficiency Syndrome ) कहते है ,जो मनुष्य में ह्यूमन इम्यूनोडिफिशिएंसीवायरस (Human Immunodeficiency Virus,HIV) द्वारा संक्रमित होता है ! इससे शरीर की प्रतिरक्षा की क्षमता कम हो जाति है एवंइस कारण रोगी को विभिन्न प्रकार के संक्रमण होने लगते है ! एक स्वास्थव्यक्ति (पुरूष / स्त्री ) के साथ संभोग करता है तब स्वास्थ व्यक्ति(पुरूष / स्त्री ) भी इस रोग का शिकार हो जाता है ! इसका एक और विशेष कारण ! यदि AIDSसे संक्रमित व्यक्ति का रुधिर दूसरे स्वास्थव्यक्ति को चढ़ाया जाए तो वह स्वास्थ व्यक्ति भी इस बीमारी का शिकार हो सकता है ! HIV से संक्रमित गर्भवती महिला से उसकेभ्रूण में इस रोगको संचरण हो सकता है !

पारिस्थितिक तंत्र और मानव (Man and ecosystem)

पारिस्थितिक तंत्र में मानव का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ! अगर हम खाध श्रृंखला (Food Chain) को दृष्टि में रखते हुए मानव का स्थान एक परिस्थितिक तंत्र में हम देखे तो पाएंगे की मनुष्य प्रथम एवं द्धितीय श्रेणियों का उपभोक्ता है ! जैसा की हम जानते है , मछली जो तलाबीय परिस्थितिक तंत्र में खाध श्रृंखला के शिखर पर है, मासाहारी मनुष्यों के लिए भोजन का कार्य करती है !
मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति में क्रियाशील अनेक पारिस्थितिक तंत्रों को बहुत अधिक हानि पंहुचाई है ! धीरे - धीरे मनुष्यों द्वारा बहुत से वनों को काटा जा रहा है जिसमे न केवल उत्पादक , अपितु विभिन्न श्रेणियों के उपभोक्ता भी नष्ट होते जा रहे है ! यही कारण है की आज अनेक प्रकार के पक्षियों एवं जन्तुओ की संख्या बहुत कम हो गई है ! अब भी प्रकृति में जो जंतु एवं पक्षी बच गए है उसका कारण यह है की उन जीवो का खाध जाल (Food Web) काफी विस्तृत है !
इसके अतिरिक्त मनुष्य ने अपने ही सुविधाओ के लिए अनेक कारखाने एवं मिले खोली है जिनसे दूषित गैस एवं अन्य वस्तुए निरंतर निकलती रहती है जो वातावरण को प्रदूषित करती है ! कारखानों के अपशिष्ट पदार्थ (Waste Products) नदियों में गिराए जाते है जिससे जलीय प्रस्थितिक तंत्र को बहुत हानि पहुचती है !
लकड़ी एवं अन्य कार्यो के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है ! इसके फलस्वरूप जलग्रहण क्षेत्रो तथा मैदानों में बाढ़ का प्रकोप बढ़ गया है ! इसके कारण आने वन्य प्राणी एवं दुर्लभ पौधे नष्ट होते जा रहे है और वनों की खाध सृंखला में प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ! चुकिं इस जैवमंडल में सबसे अधिक विकसित का सर्वोच्च जंतु मनुष्य ही है ! अतः पारिस्थितिक तंत्र के प्रत्येक घटक के साथ उसका परस्पर सम्बन्ध है ! मानव आबादी में होने वाली बेतहाशा वृद्धि से प्राकृतिक संसधानो का अत्यधिक दोहन हो रहा है जिससे पर्यावरण में असंतुलन होता जा रहा है ! अगर यही क्रम चलता रहा तो भयंकर दुष्परिणाम के लिए हमें सचेत रहना होगा ! इसलिए हमारा यह सम्मलित प्रयास होना चाहिए कि वातावरण (जल मृदा एवं वायुमंडल ) अत्यंत स्वच्छ रहे एवं इनके जीविय तथा अजीवीय तत्वों के बीच संतुलन बना रहे !

पशुपालन (Animal Husbandry)

पशुपालन के अंतर्गत हम गाय ,भैंस , भेड़ , सूअर , बकड़ी ,ऊँट आदि का प्रजनन करते है तथा इन पशुओ को देखभाल करते है ! ये सभी वे पशु है जो मानव के लिए लाभप्रद होते है ! पशुपालन में हम कुक्कुट पालन (Poultry Farming) तथा मत्स्यपालन (Fish Farming) को भी सम्मलित करते है ! अतः पशुपालन पशुप्रजनन तथा पशुधन - वृद्धि की एक कृषि पद्धति है !(Animal Husbandry is the agricultural practice of breeding and raising livestock) पशुपालन विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत पालतू पशुओ के भोजन , आवास , स्वास्थ , प्रजनन आदि पक्षों का अधयन्न किया जाता है ! जनसंख्या की दृष्टि से 70 प्रतिशत से अधिक पशुधन भारत तथा चीन में है ! परन्तु विश्वस्तर पर फार्म उत्पादों ( Form Produce ) की तुलना में हमारा देश केवल 25 प्रतिशत की योगदान करता है !
इससे स्पष्ट है की प्रति इकाई उत्पादकता की दर बहुत कम है ! उत्पादकता बढ़ने के लिए पारंपरिक पद्धितियों के अतिरिक्त नई प्रोधोगिकी को भी अपनाना होगा ! दुधारू पशुओ की अत्यधिक संख्या होने के बावजूद हमारे देश में दूध का उत्पादन संतोषजनक नहीं है ! हमारे देश में एक गाय औसतन लगभग 200 किलोग्राम दूध प्रतिवर्ष देती है जबकी यह औसत ऑस्ट्रेलिया और नीदरलैंड में 3500 किलोग्राम तथा स्वीडन में 3000 किलोग्राम पर्तिवर्ष है पशुपालन विज्ञान के अध्ययन से उन्नत नस्ल की गाय , भैस आदि प्रजनन द्वारा प्राप्त किये जा सकते है ! जनसंख्या के अनुरूप भोजन की बढती आवश्यकता की पूर्ति के लिए अधिक पुष्ट मांसल तथा जल्दी बढ़ने वाली नस्ल की मुर्गिया प्रजनन के द्वारा प्राप्त की जा सकती है हमारे देश में प्रति व्यक्ति भोजन के रूप में मांस की खपत मात्र 131 किलोग्राम है !
जबकि सयुक्त राज्य अमेरिका में मांस की खपत 1318  किलोग्राम है ! भोजन के लिए अंडे की मांग दिनोदिन बढती जा रही है इसके लिए प्रजनन द्वारा उन्नत किस्म की मुर्गिया प्राप्त की जा सकती है ! भारतवर्ष में भोजन के रूप में अंडे की प्रतिव्यक्ति खपत मात्र 6 है जबकि अमेरिका में यह 295 है ! हमारे देश में मत्स्यपालन की असीम भावनाएँ है ! पशुपालन विज्ञान द्वारा मछलियों के बच्चो (Fingerlings) का सफल निष्काशन मछलियों के आकर में समुचित वृद्धि , उनका उचित रख रखाव रोगों से बचाव आदि सम्बंधित बातें सीखी जा सकती है ! 
इसके अतिरिक्त भेड़ो , खरगोशो , की नस्लों को सुधारकर ऊन , उत्पादक बढाया जा सकता है ! पशुओ के मल - मूत्र से बायोगैस (Bio gas) का उत्पादन किया जा सकता है !

जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life)

इस पृथ्वी पर जीव का अस्तित्व प्रारंभिक काल में नहीं था ! पृथ्वी के निर्माण के प्रारंभिक काल में इतना अधिक ताप था की जीव का उस समय उपस्थित होना असंभव था ! तब प्रश्न यह उठता है की आज पृथ्वी पर भातिं - भातिं के जो असंख्य जीव - जंतु उपस्थित है , उनकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई !
जीवन की उतपत्ति की विषय को लेकर अनेक कल्पनाएँ की जाती रही है ! कुछ वैज्ञानिको का तो अपने प्रयोगों द्वारा ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में सफल भी हुए है , जिनमे जीव उत्पत्ति होने की कल्पना की जा सकती है ! इन वैज्ञानिको का मत है की यदि आदि पृथ्वी में कुछ भौतिक - रासायनिक गुण विधमान थे , तो हम सहज ही विश्वास कर सकते है की काफी लम्बे समय के पश्चात जीवन की उत्पत्ति एक अनिवार्य घटना थी ! इनका यह भी मत है की जीवन का उद्धव एक लम्बे समय में जटिल चरणों (Steps) में हुआ है !

क्रमविकास (EVOLUTION)

विकास की मौलिक कल्पना - हम अपने चारो ओर नित्य असंख्य जीव - जन्तुओ को देखते है ! ये सभी जीव जंतु बहुत ही भिन्न - भिन्न प्रकार के होते है ! अर्थात सूक्ष्म एवं सरल - एककोशीय जंतु प्रोटोजोवा से लेकर बहुकोशिया बहुत बड़े बड़े एवं अत्यंत जटिल जंतु होते है ! इशके अतिरिक्त हम यह भी जानते है की जीव ऐसे भी स्थानों पर होते है जहाँ जीवन की तनिक भी संभावना हो ! जन्तुओ में अपने वातावरण के अनुरूप स्वंय को अनुकूल बना लेने की क्षमता होती है ! ऐसी अवस्था में विचारक मनुष्य के मस्तिस्क में इस सम्बन्ध में अनेक प्रश्नों का साधन करने में भी समर्थ है ! 
क्रमविकास का अर्थ - क्रमविकास में सिधांत के अनुसार जितने भी वर्तमान जीव जंतु इस संसार में है ! उनकी उत्पत्ति पूर्व उपस्थित अनेक अन्य जीव जन्तुओ से हुई है ! ये पूर्वज अपेक्षाकृत सरल थे ! धीरे -धीरे कई पीढ़िया तक इनमे अनुवान्सिक परिवर्तन होते गए ! ये सब परिवर्तन इनमे एकत्र होते गए तथा इनके परिणाम स्वरुप वर्तमान जीव जन्तुओ का उदय हुआ ! इसका तात्पर्य यह हुआ की सभी जीव जंतु अपने सामान्य अवतरण (Common Descent) के कारण एक दुसरे से सम्बन्ध है एवं हम इनके पूर्व इतिहास को इनके सामान्य पूर्वज समूह (Common Ancestral Group) तक खोज सकते है ! अधिकांश जीव जन्तुओ के विकास में एक महत्वपूर्ण बात यह है की इनका अनुकूलन किसी विशेष वातावरण के प्रति बढ़ता गया ! फलस्वरूप कभी कभी विशिष्टता उत्पन्न होती गई एवं रचनाओ की तथा उनके कार्यो की भी जटिलता बढती गयी !
किसी भी विशिष्ट जीव के विकास में सदैव दो बातें सम्मलित होती है -  (1) अपनी आबादी के समरूपी दुसरे सदस्यों से जटिल आपसी सम्बन्ध !(2) उसका सम्पूर्ण वातावरण ! अतएव आबादी ही प्रत्येक जीव के अस्तित्व का प्राकृतिक आबादी समूह के अन्य सदस्यों में आपसी संबंधो को बगैर समझे , जाति (Species) को समझ पाना असंभव है , जो सभी विकास सिधांत का केंद्र बिंदु है ! अतः विकास के मूलभूत सिधांत में दो महत्वपूर्ण बातों पर बल दिया जाना चाहिये (1) कैसे जीनी संरचना (Genotype) परिवर्तित होता है एवं शरीर में यह कैसे कार्य करता है ! (2) कैसे वातावरण जीव में अनुकूलन उसकी भिन्नताएँ उसका कायम रहना तथा उसके जीवन इतिहास को प्रभावित करता है ! अतएव वातावरण ही विकास प्रक्रम में निर्देशात्मक शक्ति है ! कैसे जीव वातावरण के प्रति प्रक्रिया करता है , यह उसकी जीनी संरचना अथवा जीन - समूह (gene pool) उसके उत्प्रवार्तित जीन (gene) तथा जीन संयोजन पर आधारित होता है ! जीनी संरचना का अनुकूलन - महत्व उस वातावरण पर निर्भर करता है ! जिसमे जीव रहता है !
क्रमविकास का अध्ययन जीवविज्ञान की एक निश्चित एवं सबसे महत्वपूर्ण शाखाओ में एक है ! इसका अध्ययन भी अन्य महत्वपूर्ण विज्ञानों की भातिं प्रयोगों एवं परीक्षण  पर आधारित होना चाहिए किन्तु क्रम्विक्स के अध्ययन की इस दिशा में अपनी कुछ सीमाएँ है ! विक्स एक अत्यंत धीमा प्रक्रम है ! बहुत सरे विकास आदिकाल में हो चुके है और बहुतेरे यद्यपि कल्पना में निहित है , किन्तु  उन सबका प्रयोगों द्वारा परीक्षण संभव नहीं है ! फिर भी , जीवाश्म (Fossils) हमारे समक्ष विकास  का बहुत स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते है ! जीव संख्या (Population) अनुवांशाकी भी , कुछ सीमा तक परोक्ष प्रमाण प्रस्तुत करते है !